Wednesday, February 4, 2009

एक खामोश लम्हा

दर्द मुस्कुराता है
झांकता झरोखे से, बेबस दुनिया को
वक्त की झोली में भर, ख्वाब सुहाने मीठे
बांटता रोज, रंग भरे साज सजे
नींद में डूबा जहाँ, लूटता ख्वाब बेतकल्लुफ, बेपनाह
और फिर देखता हर लम्हा बिखरते उनको।
दर्द हाँ दर्द -
दूर एक कोने में
मुस्कराता है, कहकहाता है।


एक जहाँ और भी है
जिसके दर पे अक्सर
दर्द रोता है अपने बेवजह होने पर।
वक्त के पार जहाँ
आसमानों से जहाँ
चांदनी बरसा करती
ख्वाब ही ख्वाब नहीं, जिंदगी भी ख्वाब जहाँ
सिर्फ इंसां नहीं–
दरख्तों से भी बातें होतीं
दीखता तैरता दरिया में वो, पा जिसकी झलक
खुद ब खुद हरएक खुदी शादमां होती।
कह नहीं पाते अगर कहना जो कुछ चाहें
अनकहे ही जहाँ सब कुछ की खबर होती है
रेत के महल नहीं, ख्वाब की सेज नहीं
एक खामोश लम्हा जिंदगी भर जाता।
फिक्र उसकी में और जिक्र उसका
जो आसमानों के परे झांक रहा
सर मेरा सुबहो शाम
झुकता जाता है
खोता जाता है।

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